Valley of Flowers Trek About Valley of Flowers The Valley of Flowers lives up to its name, with an endless supply of flowers in full bloom. The journey could even be renamed a floral fairytale romance! The Valley of Flowers' unique landscape is like a dream come true: an exquisite valley bejewelled with a never-ending stretch of flowers. Between the rocky mountain ranges of Zanskar and the Great Himalayas are lovely meadows studded with indigenous alpine flora. The area, which is a UNESCO World Heritage site, was designated as a national park in 1982. The endless stretch of gorgeous vegetation, dotted with colourful blossoms of pink, yellow, purple, red, blue, and orange hues, is the highlight of this excursion. Throughout the hike, the fragrant scent of the carpeting flowers entices you. Botanists, flower lovers, bird watchers, wildlife photographers, hikers, environment enthusiasts, and adventure seekers from all over the world are drawn to the valley's unspoiled beauty. It...
नंदादेवी राजजात यात्रा. बिदाई से बंदी आस्था की डोर.
भरता एक अनोखा देश है. पूरी दुनियां में जहाँ पर भी भारत की बात होती है तो इसके कुदरती सौंदर्य और खूबसूरती की ज़िक्र के बिना खत्म नहीं होती.आये आपको ले चलते हैं हिमालय की एक ऐसी ही अनोखी यात्रा पे जिसे हिमालय का कुंभ कहा जाता है. यह यात्रा 12 वर्षों में एक बार होती है. यह यात्रा समुद्र तल से 13200 फीट की ऊंचाई पर आयोजित होती है जिसकी वजह से इस यात्रा की अति दुर्गम और कठिन यात्रा माना जाता है
आपने बहुत सारी यात्राओं के बारे में तो सुना होगा पर यह यात्रा एक अनोखी रहस्यमई और सांस्कृतिक यात्रा है.
यह यात्रा उत्तराखंड के चमोली गढ़वाल जिले से शरू होती है प्राचीन समय में गढ़वाल के राजा द्वारा इस यात्रा का आयोजन किया जाता था.
नंदा उत्तराखंड हिमालय वासियों की लोक देवी है यहाँ नंदा को बिहाई गयी बेटी के रूप में पूजा जाता है. माना जाता है कि बचपन में ही नंदा का विवाह शिवजी से करवाया गया था. शिवजी अपने ध्यम में मगन रहते थे और यहाँ नंदा को अकेला पन महसूस होता था. वहां उनको अपने मइके की बहुत यादन तभी उनको अपने मइके भुलाया जाता था और कुछ समय बाद उनको वापिस अपने ससुराल भेजा जाता था.
माइके से ससुराल भेजे जाने वाले वाले इस प्रथा को राजजात यात्रा कहा जाता है.
इस यात्रा को उत्तराखंड के एक महा कुम्भ की तरह माना जाता है और लोग इसका बेसब्री से इंतज़ार करते हैं. कहते हैं कि प्राचीन काल में शिव इसी रास्ते से यहाँ आये थे और नंदा का हाथ माँगा था.
परंपरा के अनुसार भाद्रपद के पहेल नवरात्र में कनसुआ के राजकुँवर चौ सिंघीया खाडू और रिंगाल की छंतोली लेकर नौटी पहुंचते हैं. नौटी उत्तराखण्ड राज्य के चमोली जिले में एक छोटा सा और सुन्दर गाँव है.
इस यात्रा के दो मुख्या आकर्षण हैं चौ सिंघीया खारु और रिंगाल की छंतोली. जो इस यात्रा में माँ की डोली के साथ साथ चलते हैं
जो इस यात्रा में माँ की डोली के साथ साथ चलते हैं.
चौ सिंघीया खाडू को पवित्र किया जाता है और रीनल की छंतोली को माँ की प्रतिमा के साथ प्राणप्रतिष्ठित किया जाता है.
चौ सिंघीया खाडू को पवित्र किया जाता है और रीनल की छंतोली को माँ की प्रतिमा के साथ प्राणप्रतिष्ठित किया जाता है.
और यहाँ से आरम्भ होती है
यह प्रतिष्ठित और अद्भुत यात्रा.
नौटी से माँ नन्दा देवी को स्नान के लिए कर्णप्रयाग ले जाया जाता है और वहां से दूसरे दिन नौटी वापस आया जाता है. नौटी को माँ नन्दा देवी का मायका कहा जाता है. नौटी से यत्र इराबदानी से होते हुए यात्रा कांसुआ गाओं पहुँचती है. कांसुआ गाओं के राजकुँवर परिवार में चौ सिंघे खाडू का देवी अंश के रूप में जनम होता है.
यह खाडू राजजात यात्रा की अगवानी करता है. माँ नन्दा देवी ने खारु को अपने वाहन के रूप में निर्मित किया था क्यूंकि की खारु अति दुर्घं और कठिनाई भरी चटानो में भी अपना मार्ग खोज लेता है.
राजजात यात्रा का स्वागत राजवंशी कुंवर करते हैं इस यात्रा के शाही स्वागत को देखने हज़ारों श्रद्धालु जन सैलाब बन कर उम्र आते हैं.
राजजात यात्रा का स्वागत राजवंशी कुंवर करते हैं इस यात्रा के शाही स्वागत को देखने हज़ारों श्रद्धालु जन सैलाब बन कर उम्र आते हैं.
यह भक्त माँ नन्दा देवी को चूड़ियां, श्रृंगार, नए वस्त्र और नया अनाज चरावे के रूप में भेंट करते हैं इस भेंट को चौसिंघिए खाडू की पीठ पर बने एक थैले में रखा जाता है. यह यात्रा आगे जाकर उज्जवलपुर में पहुंचती है,
माना जाता है की जब पुराने समय में बलि की प्रथा का चलन था तब यह खाडू बलि के रूप में माँ के साथ भेजा जाता था पर अब जब इस प्रथा का चलन बंद हो गया है तो इस खाडू को होम कुंड में छोड़ा जाता है. लोगों में विशवास है की यह खाडू कैलाश चला जाता है. जिस साल में इस यात्रा का आयोजन किया जाता है उस साल में कनसुआ के कुंवर लोग बेदिचिंता गांव के लोगों को छंतोली बनाने का अनुरोध करते हैं.
रिंगाल के कारीगर यह छंतोली बनाकर कुंवर लोगों को दे
देते हैं.
कंसुआ के कुंवर यह छंतोली लेकर नौटी आये हैं और यहाँ पर यात्रा की मनौती मांगी जाती है, और इस यात्रा का दिन तय होता है फिर उस मनौती की पोटली को रिंगाल की छंतोली पर बाँदा जाता है और वापिस आने पर इस छंतोली को नौटी और कनसुआ गाओं के बीच में पड़ने वाले सैलेश्वर महादेव के मंदिर में रखा जाता है.
मइके से ससुराल जाने की इस प्रथा में माँ नन्दा को डोली में बैठाकर ससुराल ले जाने का लोक विश्वास है इस यात्रा का पहला पड़ाव इराबदानी गांव है. कैलाश जाने से पहले माँ नन्दा देवी इस गाओं में जरूर जाती हैं. एक बार कैलाश जाते वक़्त माँ की नज़र इस गाओं पर पड़ी और वह गाओं उनको पसंद आ गया और वह वहां जा पहुंची.
कंसुआ के कुंवर यह छंतोली लेकर नौटी आये हैं और यहाँ पर यात्रा की मनौती मांगी जाती है, और इस यात्रा का दिन तय होता है फिर उस मनौती की पोटली को रिंगाल की छंतोली पर बाँदा जाता है और वापिस आने पर इस छंतोली को नौटी और कनसुआ गाओं के बीच में पड़ने वाले सैलेश्वर महादेव के मंदिर में रखा जाता है.
मइके से ससुराल जाने की इस प्रथा में माँ नन्दा को डोली में बैठाकर ससुराल ले जाने का लोक विश्वास है इस यात्रा का पहला पड़ाव इराबदानी गांव है. कैलाश जाने से पहले माँ नन्दा देवी इस गाओं में जरूर जाती हैं. एक बार कैलाश जाते वक़्त माँ की नज़र इस गाओं पर पड़ी और वह गाओं उनको पसंद आ गया और वह वहां जा पहुंची.
वहi उनका स्वागत जमानसिंघ जदोरा नाम के आदमी ने किया और माँ से यह वचन माँगा की माँ जब भी कैलाश वापिस जाएँगी तो उस गाओं से होती हुई जाएँगी. माँ की बिदाई करने के लिए सासरा गांव रामेश्वरम तक जाता है और उसके बाद यात्रा कुमाऊं के मूल गाओं कनसुआ पहुँचती है. यहाँ पर चौसिंघे खाडू और रिंगाल की छंतोली की पूजा की जाती है.
इस गाओं के राजकुंवरों पर इस यात्रा के आयोजन की जिम्मेदारी होती है. कानुसा की सीमा के पास आता है महादेव घाट कंसुआ के लोग यहाँ तक माँ की यात्रा को बीडा करने के लिए आते हैं.
और यहाँ से माँ की छंतोली को कोटि गाँव के ब्राह्मणों को सोमपा जाता है.
चांदपुर गाओं यह वो गाओं है जहाँ यात्रा को देखने के लिए सबसे ज्यादा भीड़ इकठी होती है. अगला पड़ाव होता है सेम गाओं. कोटि यह वो गाओं है जहाँ से नंदा को ससुराल नहीं जाना है और यहाँ माँ नंदा को कोटिशः ससुराल जाने के लिए विनंती की जाती है
और यहाँ से माँ की छंतोली को कोटि गाँव के ब्राह्मणों को सोमपा जाता है.
चांदपुर गाओं यह वो गाओं है जहाँ यात्रा को देखने के लिए सबसे ज्यादा भीड़ इकठी होती है. अगला पड़ाव होता है सेम गाओं. कोटि यह वो गाओं है जहाँ से नंदा को ससुराल नहीं जाना है और यहाँ माँ नंदा को कोटिशः ससुराल जाने के लिए विनंती की जाती है
अब कोटि से भगोती के लिए प्रस्थान किया जाता है. घटोरा गाँव में माँ के पीछे अस्सुर पड़े थे यहाँ माँ ने अपने जय और विजय नामक दो घरों को प्रकट किया उन्होंने असुरों से युद्ध किया और उनको वहाँ से भगा दिया था. मान जाता है की इस गाओं को मइके क्षेत्र का अंतिम गाओं कहा जाता है.
ससुराल क्षेत्र का पहला गाओं आता है कलसूरी. जो इस यात्रा का पहला पड़ाव होता है. यहाँ माँ को काली के रूप में पूजा जाता है और परंपरा के अनुसार यहाँ यात्रा को अमावस्या के दिन पहुंचना होता है. यहाँ पर काली यन्त्र भूमिगत है और यात्रा के अवसर पर इस यन्त्र को बहार निकाला जाता है और उसकी पूजा की जाती है और फिर अगली यात्रा तक इस यन्त्र को भूमिगत किया जाता है. यात्रा का अगला पड़ाव नंदकेसरी गाओं है इसी तरह अनेको गांव से गुजर कर यात्ता अपने अंतिम पाराव वाण गाँव पहुँचती हैं. यहाँ पर यात्रा का बड़ा संगम होता है. मान्यता है कि इस गांव वालो से माँ ने वचन माँगा था की जब भी मेरी यात्रा यहाँ पर आएगी तो आपको अपने घरों पे ताले नहीं लगाने हैं और यात्रा के साथ आए हुए यात्रियों की सेवा करनी है,
वाण
वाण से आगे निकल कर यात्रा गैरोलीपातल होते हुए वैदनी पहुँचती है यहाँ पर एक कुण्ड है यहाँ पर पूजा की जाती है और यात्री यहाँ पर विश्राम करते हैं. यहाँ हिमालय के लोगों और हिमालय की खूबसूरती के दर्शन होते हैं. कहा जाता है की यहाँ ब्रह्मा जी ने बैठकर वेदों की रक्षा की थी.
बगुआबासा यह वो गाओं है जहाँ नंदा देवी के वाहन बाग़ का निवास है यहाँ से होते हुए यात्रा चेरीनाग पहुँचती है चेरीनाग यह यात्रा का बहुत ही कठिन रास्ता है आगे आता है रूपकुंड जहाँ पर नंदा देवी को प्यास लगी थी और शिवजी ने अपना त्रिशूल चलाकर एक कुंड का निर्माण किया इस कुंड में पानी पीते वक़्त माँ ने अपना रूप देखा था इसकी वजह से इस कुंड का नाम रूप कुण्ड पर गया.
आखिर कर यात्रा अपने आखरी पड़ाव होमकुंड पहुंचती है यहाँ एक कुण्ड है जहाँ पर हवं और पूजा की जाती है यह हिमालय की एक ऐसी जगह है जो साल
के 11 महीने वीरान रहती है यात्रा जब यहां पहुंचती है तो ऐसा लगता है मानो कुम्भ का मेला लगा हो. यहाँ पर माँ नंदा देवी और खाडू की पूजा की जाती है और खाडू को अकेला कैलाश जाने के लिए छोड़ दिया जाता है.
यहाँ से आगे लोग नहीं जाते क्यूंकि आगे का रास्ता अति दुर्गम और कठिन है और ऑक्सीजन की कमी भी होती है. और इस तरह अनेको गांव से होते हुए यात्रा यहाँ पर पहुंच कर समाप्त होती है.
यात्रा मार्ग में आने वाले गाओं
नौटी, कर्णप्रयाग, नौटी, कंसुआ, ई रबाडनी, सेम, कोटि, भगोती, कुलसारी, चपरौ, नंदकेसरी, फल्दिया, मुंडोली, वाण, गेरोलीपाल, बेदनी भुग्याल, पटतर नचोनियां, शिला समुंद्र, चंडानिया गहत, सुतोल, नौटी
Comments
Post a Comment
If you have any doubt please let me know